मेरे जीवन की कथा मे थोड़ी छाँव है थोड़ी धूप है, जिंदगानी के सफ़र का देखिए क्या रूप है, आज खोली है हृदय की मैने अपनी डायरी, मन मेरा तो वेदना का आप्लावित कूप है .
जेठ की दारून तपन जब लू भी थी ऊफान पर,मैने कुटिया थी बनाई रेत के मैदान पर, मुझको नगर में बसने की आख़िर इजाज़त थी नही,
ना ठाव दूजा था कहीं...वहीं बस गया तो बस गया .
वो हमारे द्वार आया था सहारा माँगने, उंगलियाँ पकड़ी थी, फिर पहुँचा लगा था थामने, और एक दिन फिर उसी ने मेरी कुटिया छीन ली, था आदमी वो 'आज का '... बस छल गया तो छल गया .
मैने स्वप्नो का बनाया था कभी एक आशियाँ, जब तलक थी छत बनी तो चुप पड़ीं थीं आँधियाँ, जैसे ही मेरे द्वार के शृंगार का आया समय, बस आँधियों का वेग था... घर ढह गया तो ढह गया .
इश्क़ की गहराइयों मे हम भी उतरे थे कभी,मुझे अपनों ने ही दगा दिया, मेरे काम ना आया कोई, अपने विफल उस प्यार का मुझको नही अफ़सोस है,प्यार यद्यपि था वो पहला....बस.. रह गया तो रह गया .
जब बजीं थी घर मे उसके प्रीति की शहनाईयां, दिल में मेरे पसरी थीं बस दूर तक तनहाईयाँ, फिर भी खुद डोली बिठाया मैने अपने प्यार को, आँखों ने था नम हो देखा प्रेम के इस हार को, और फिर उस प्रेम की बातें पुरानी सोचकर.... आँखों से... आँसू.. का दरिया.... बह गया तो बह गया.
मैने सुनाया आपको जो मन के मेरे भाव थे, मैने दिखाया आपको जो मन के मेरे घाव थे, आपने कैसे लिया... ये आप ही हैं जानते,मै तो भावों मे बहा... बस बह गया तो बह गया. हर कोई है भोगता सुख- दुख इसी संसार में, कह दिया मैने जो कहना था खुले बाजार में, कह के देखो हो गया इस दिल की पीड़ा का शमन, और मै भी कहते कहते ही... अब थम गया तो थम गया .
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